ॐ साईं राम
धूनि माँ की महिमा
इस बार द्वारकामाई में जाकर
धूनि माँ के सन्मुख सिर झुकाया,
तो उन्हे अपने से ही
बात करते हुए पाया
पिछले डेढ सौ साल से जलती धूनि ने
मेरे माथे को हल्के से छुआ
तो जैसे बाबा के स्पर्श का
मधुर सा आभास हुआ
यूँ ही अपने ताप को
फैलाते होले होले
धूनि माँ ने अपने
जीवन के भेद खोले
अपनी सुर्ख लपटों को
हल्के से लहरा कर
धूनि माँ बोली
अपनी गर्मी को गहरा कर
याद है मुझे आज भी वो दिन
जब बाबा ने अपनी योग शक्ति से
मुझे जलाया था
फिर हर दिन सुबह और शाम
मैनें प्रेम बाबा का पाया था
बाबा अक्सर लकडियाँ डालते हुए
मेरे सामने बैठ जाते थे
कभी आसमान की ओर देखते,
कभी श्री मुख से वचन फरमाते थे
साईं प्रतिदिन भिक्षा में
जो कुछ भी पाते थे
सर्वप्रथम उसकी आहूति
मेरी ज्वाला में चढाते थे
फिर हवा में चमकीली चिंगारियाँ
छोडते हुए धुनि माँ ने बताया
कैसे समय ने उन्हे
साईं की लीलाओं का साक्षी बनाया
एक बार दशहरे के दिन बाबा
क्रोधित हुए किसी बात पर
भक्तों को लगा कि क्रोध
शाँत ना होगा रात भर
बाबा ने अपने सभी वस्त्र
क्रोधित हो कर फाड डाले
और मेरी अग्नि की लपटों के
कर दिए हवाले
इस आहूति को पा मेरी लपटें
दुगुनी धधक पडी थी
बाबा की क्रोधाग्नि और मेरी ज्वाला
मानों एक साथ बढी थीं
धीरे धीरे बाबा शाँत हुए
और पुनः प्रेम बरसाया था
सब भक्त जनों ने मानो
नव जीवन सा पाया था
एक दिवस मैने भी
बाबा की लीला देखने का मन बनाया
और अपनी लपटों को तेज कर
ऊपर की ओर बढाया
अपनी ज्वाला को
धीरे धीरे बढा कर
जैसे मैने छू ही लिया
द्वारकामाई की छत को जा कर
अन्तरयामी साईं ने क्षण भर मे
मेरी इच्छा को था जान लिया
और अद्भुत लीला दिखला कर
उस इच्छा को था मान दिया
बाबा ने अपने सटके से चोट की
द्वारकामाई की दीवार पर
मेरी लपटें शाँत होने लगी
सटके की हर मार पर
साठ बरस में ना जाने
कितनी ही बार
बाबा की लीलाओं का
पाया था मैनें साक्षात्कार
एक अग्निहोत्र की तरह बाबा ने
मुझे जीवन भर प्रज्जवलित रक्खा था
और मेरी ही राख से उपजी 'ऊदि' का
भक्तों ने कृपा प्रसाद चक्खा था
बाबा से किसी भक्त ने
पूछा था एक बार
सदैव धूनि जलाए रखने का
क्या है आधार?
तब साईं नाथ ने
श्री मुख से जो फरमाया था
उसने भक्त जनों मे
मेरा महत्व बढाया था
बाबा ने कहा था-
धूनि की पावन अग्नि
कर्मों और विकारों को जलाती है
और जीवन में जो भी है,क्षणभंगुर है
यह एहसास कराती है
अग्नि वस्तु और कुवस्तु में
भेद नहीं जताती है
जो भी उसके सँपर्क में आए
उसे सम ताप ही पहुँचाती है
समस्त वेद पुराण भी
धूनि की महिमा गाते हैं
देवता भी अपना नैवेद्य
अग्नि के द्वारा ही पाते हैं
धूनि की अग्नि में भस्म हो
जो कुछ भी बच जाता है
उसी का तो हर साईं भक्त
महा प्रसाद पाता है
फिर गर्म साँस को
हवा में छोड कर
अपनी पावन लपटों से मानों
हाथों को जोड कर
धूनि माँ ने साईं नाथ को
प्रणाम किया
और मुझे आशिष देते हुए
अपनी वाणी को विश्राम दिया
मैंनें भी मँत्र मुग्धा हो
धूनि माँ की महिमा को जाना
साईॅ उनके माध्यम से जो कहना चाहते थे
उस सच को पहचाना
लोबान डालते हुए मैनें
धुनि माँ को प्रणाम किया
जीवन की एकमात्र सच्चाई
'ऊदि' का प्रसाद लिया
धूनि माँ से प्रेरित हो कर
मैने भी अपने ह्रदय में
साईं नाम की धूनि जलाई है
कोशिश करती हूँ उसमें
अपने विकारों की आहूति दूँ,
यही शिक्षा तो मैनें धूनि माँ से पाई है
इस बार द्वारकामाई में जाकर
धूनि माँ के सन्मुख सिर झुकाया,
तो उन्हे अपने से ही
बात करते हुए पाया
पिछले डेढ सौ साल से जलती धूनि ने
मेरे माथे को हल्के से छुआ
तो जैसे बाबा के स्पर्श का
मधुर सा आभास हुआ
यूँ ही अपने ताप को
फैलाते होले होले
धूनि माँ ने अपने
जीवन के भेद खोले
अपनी सुर्ख लपटों को
हल्के से लहरा कर
धूनि माँ बोली
अपनी गर्मी को गहरा कर
याद है मुझे आज भी वो दिन
जब बाबा ने अपनी योग शक्ति से
मुझे जलाया था
फिर हर दिन सुबह और शाम
मैनें प्रेम बाबा का पाया था
बाबा अक्सर लकडियाँ डालते हुए
मेरे सामने बैठ जाते थे
कभी आसमान की ओर देखते,
कभी श्री मुख से वचन फरमाते थे
साईं प्रतिदिन भिक्षा में
जो कुछ भी पाते थे
सर्वप्रथम उसकी आहूति
मेरी ज्वाला में चढाते थे
फिर हवा में चमकीली चिंगारियाँ
छोडते हुए धुनि माँ ने बताया
कैसे समय ने उन्हे
साईं की लीलाओं का साक्षी बनाया
एक बार दशहरे के दिन बाबा
क्रोधित हुए किसी बात पर
भक्तों को लगा कि क्रोध
शाँत ना होगा रात भर
बाबा ने अपने सभी वस्त्र
क्रोधित हो कर फाड डाले
और मेरी अग्नि की लपटों के
कर दिए हवाले
इस आहूति को पा मेरी लपटें
दुगुनी धधक पडी थी
बाबा की क्रोधाग्नि और मेरी ज्वाला
मानों एक साथ बढी थीं
धीरे धीरे बाबा शाँत हुए
और पुनः प्रेम बरसाया था
सब भक्त जनों ने मानो
नव जीवन सा पाया था
एक दिवस मैने भी
बाबा की लीला देखने का मन बनाया
और अपनी लपटों को तेज कर
ऊपर की ओर बढाया
अपनी ज्वाला को
धीरे धीरे बढा कर
जैसे मैने छू ही लिया
द्वारकामाई की छत को जा कर
अन्तरयामी साईं ने क्षण भर मे
मेरी इच्छा को था जान लिया
और अद्भुत लीला दिखला कर
उस इच्छा को था मान दिया
बाबा ने अपने सटके से चोट की
द्वारकामाई की दीवार पर
मेरी लपटें शाँत होने लगी
सटके की हर मार पर
साठ बरस में ना जाने
कितनी ही बार
बाबा की लीलाओं का
पाया था मैनें साक्षात्कार
एक अग्निहोत्र की तरह बाबा ने
मुझे जीवन भर प्रज्जवलित रक्खा था
और मेरी ही राख से उपजी 'ऊदि' का
भक्तों ने कृपा प्रसाद चक्खा था
बाबा से किसी भक्त ने
पूछा था एक बार
सदैव धूनि जलाए रखने का
क्या है आधार?
तब साईं नाथ ने
श्री मुख से जो फरमाया था
उसने भक्त जनों मे
मेरा महत्व बढाया था
बाबा ने कहा था-
धूनि की पावन अग्नि
कर्मों और विकारों को जलाती है
और जीवन में जो भी है,क्षणभंगुर है
यह एहसास कराती है
अग्नि वस्तु और कुवस्तु में
भेद नहीं जताती है
जो भी उसके सँपर्क में आए
उसे सम ताप ही पहुँचाती है
समस्त वेद पुराण भी
धूनि की महिमा गाते हैं
देवता भी अपना नैवेद्य
अग्नि के द्वारा ही पाते हैं
धूनि की अग्नि में भस्म हो
जो कुछ भी बच जाता है
उसी का तो हर साईं भक्त
महा प्रसाद पाता है
फिर गर्म साँस को
हवा में छोड कर
अपनी पावन लपटों से मानों
हाथों को जोड कर
धूनि माँ ने साईं नाथ को
प्रणाम किया
और मुझे आशिष देते हुए
अपनी वाणी को विश्राम दिया
मैंनें भी मँत्र मुग्धा हो
धूनि माँ की महिमा को जाना
साईॅ उनके माध्यम से जो कहना चाहते थे
उस सच को पहचाना
लोबान डालते हुए मैनें
धुनि माँ को प्रणाम किया
जीवन की एकमात्र सच्चाई
'ऊदि' का प्रसाद लिया
धूनि माँ से प्रेरित हो कर
मैने भी अपने ह्रदय में
साईं नाम की धूनि जलाई है
कोशिश करती हूँ उसमें
अपने विकारों की आहूति दूँ,
यही शिक्षा तो मैनें धूनि माँ से पाई है
~SaiSewika
जय साईं राम
जय साईं राम