ॐ साईं राम विडम्बना वहाँ दूर, बहुत दूर जहाँ ज़मीन और आसमान मिलते हुए दिखाई देते हैं मिलते हैं क्या ? नहीं......... ज़मीन यहाँ नीचे आसमान......बहुत ऊपर ना ज़मीन ऊपर जाती है ना आसमान नीचे आता है फिर भी लगता है दोनो मिल रहे हैं आँखे देखती हैं एक अद्भुत दृश्य जो होता है बस आँखो का धोखा और उस धोखे का सुन्दर सा नाम "क्षितिज" कभी रेगिस्तान में प्यास से तडपते हुए पानी की तलाश की है? लगता है......कुछ ही दूरी पर ठँडा चमकीला पानी है बस पास गए..........अँजुलि भरी और तृषा समाप्त लेकिन वहाँ पानी होता है क्या? नहीं..........होती है सिर्फ गर्म रेत पैरों और आत्मा को झुलसाती हुई........ होती है तो सिर्फ "मृग मरीचिका" हिरण दौडते जाते हैं आगे और आगे पानी नहीं मिलता मिलती है सिर्फ धोखे में आने की सज़ा कभी बारिश के बाद दूर आसमान में उग आए "इन्द्रधनुष" को देखा है? दुनिया के सुन्दरतम रँगो को अपने में समेटे हुए....... कैसा आश्चर्य है आँखो को दिखते तो हैं पर रँग होते ही नहीं होती है सिर्फ प्रतिच्छाया और सूरज तुम्हारे पीछे ना हो तो देख भी ना पाओगे उसे आसमान और पानी नीले दिखते हैं पर होते हैं क्या? नहीं असल में होते हैं रँग हीन जो दिखता है वो तो है ही नहीं ऐसा ही है ये सँसार आँखो के सामने है भी पर सत्य नहीं अभी है अभी नहीं रहेगा फिर भी हम भागते हैं उसके पीछे........... और खुश हैं अपने "क्षितिज" को निहारते हुए "मृगमरीचिका" में दौडते हुए और अपने "इन्द्रधनुष" को सराहते हुए कैसी विडम्बना है हम झूठ को सच की तरह जीते जाते हैं रेत में पानी ढूँढते हुए मृग की तरह जय साईं राम |