ओम साईं राम
लो मैं शिरडी हो आई
सुधबुध अपनी खो आई
बाबा को मैंने देख लिया
मैं मतवाली हो आई
सोने का सिंहासन था
जिसपर बाबा साजित थे
सम्पूर्ण सृष्टि के महामहिम
शोभायमान विराजित थे
बाबा के मुख मंडल की
बडी अनोखी आभा थी
होठों की हल्की स्मित रेखा
सोने पर सुहागा थी
साईं के चोडे माथे पर
तिलक त्रिपुंडाकार था
सर पे मुकुट,कानों में कुण्डल
गले में सुन्दर हार था
रेशमी पीताम्बर वस्त्र
जगमग सितारों जडा था
ज़री का प्यारा सा शेला
कन्धों ऊपर पडा था
बाबाजी का दाहिना पैर
बायें घुटने पर टिका था
बाबा जी का अनुपम अद्भुत
रूप सुनहरा दिखा था
बायें हाथ की लम्बी अंगुलियां
दाहिने चरण पर फैली थीं
ऐसे बैठे बाबा जी की
प्रतिमा बडी रुपहली थी
अखियों के कोरों से बाबा
मंद मंद मुस्काते थे
परम प्रिय को सन्मुख पाकर
भक्त विह्वल हुए जाते थे
हाथ जोडकर मेरी काया
मानों जडवत खडी रही
काठ बनी मैं प्राण हीन सी
श्री चरणों में पडी रही
जीवन,समय और सृष्टि सारी
रुक सी गई और थमी रही
पर अंदर कुछ क्रंदन फूटा
और आंखों में नमी रही
हाथ जोडकर विनती की
साईं अब अपनाओ तुम
श्री चरणों में पडा रहन दो
अब ना यूं भटकाओ तुम
काश अगर कहीं ऐसा होता
समय वहीं पर रुक जाता
कर्म बन्ध का कर्ज़ है जितना
इस जीवन का चुक जाता
लाख चौरासी के चक्कर में
फिर फिर ना मुड कर आती
निर्मल पावन पद पंकज में
चिर विश्रांती मैं पाती
~SaiSewika
जय साईं राम