Thursday, June 4, 2009

ओम साईं राम

कल रात मेरे सपने में
बूढा फ़कीर इक आया
वेशभूषा तो बाबा सी थी
पर मुख था मुरझाया

जीर्ण क्षीण थी बूढी काया
दिखती थीं सब आंते
आंखे डबडब भरी हुई थीं
हाथ कांपते जाते

एक हाथ टमरैल थमा था
कंधे पर था झोला
एक हाथ में सटका था और
फटा हुआ था चोला

उनकी हालत देख देख कर
मन मेरा घबराया
पूछा बाबा क्या कर डाला
ये क्या हाल बनाया

दुखी स्वरों में बाबा बोले
तुमको क्या बतलाऊं
क्या क्या मुझको भक्त बोलते
बतलाते शरमाऊं

कोई कहता मैनें उसको
धोखा बहुत दिया है
कोई कहता मेरे कारण
वो पीडा में जिया है

कोई कहता मैंने उसकी
झोली रक्खी खाली
कोई कहता दुखी ज़िंदगी
मैंने है दे डाली

कोई मर्म ना जाने मेरा
कैसे मैं समझाऊं
सुख दुख सब कर्मों का फल है
कैसे मैं बतलाऊं

फिर भी मैं कोशिश करता हूं
उनके दुख मैं ले लूं
उनको जो भी कष्ट भोगने
मैं ही उनको झेलूं

ऐसी बातें सुन सुन कर
है फटती मेरी छाती
दोषारोपण ऐसा पाकर
रूह कांपती जाती

अब मैं पछताता हूं क्यों मैं
इस धरती पर आया
क्यों भक्तों के पाप काटने
तन मानव था पाया

भक्तों ने जो घाव दिये हैं
उनसे टूटा मन है
पाप कर्म सब उनका ढोते
बोझिल मेरा तन है

देखो उनके दुख हैं मैंने
इस झोली में डाले
उनको ढोते ढोते मेरे
पडे पैर में छाले

अपने ऊपर दुख ओढता
उफ़ ना मैं करता हूं
मैं ही उनका दुख हरता हूं
मैं ही सुख करता हूं

फिर भी मेरे भक्त समझते
मैं दोषी हूं उनका
केवल सुख ही सुख चाहता
हर पल हर दिन जिनका

बाबा की यह व्यथा जानकर
मन मेरा भी कांपा
रोम रोम में दुख का सागर
मुझमें भी आ व्यापा

बाबा के चरणों में गिरकर
फूट फूट मैं रोई
बाबा हमको माफ करो तुम
तुम बिन और ना कोई

नहीं जानते हैं वो बाबा
जो ये सब हैं कहते
शायद वो घबरा जाते हैं
दुख दर्द को सहते

भक्तों के मन की आखों को
स्वामी तुम ही खोलो
पत्ते पत्ते में कण कण में
भक्ती रस को घोलो

हम तो दाता इतना चाहें
कुछ ऐसा तुम कर दो
जब भी हाथ पसारे
दरशन चाहें ऐसा वर दो

इससे कुछ ज़्यादा ना चाहें
ना धन, यश ना मान
देना है तो स्वामी दे दो
श्री चरणों में स्थान





~सांई सेविका


जय साईं राम

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